बिस्तर पर हूँ मैं,
पर आँखे बंद क्यों नहीं हैं,
दिल तो अधमरा सा हे,
पर कोई दर्द क्यों नहीं है,
इतने सारे रिश्तों के बीच,
क्यों नहीं रहना है अब,
किसी को प्यार किसी का सम्मान,
क्यों नहीं करना है अब.
मुझे स्वार्थी कहो या फिर कायर,
मुझे है नहीं अब किसी का डर,
कमसेकम आज रात तो नींद आएगी,
मेरी यह कोशीश तो रंग लाएगी,
बाकी कोशीश तो बहुत की थी,
इस मिट्टी से सोना निकालने में,
परिश्रम भी बहुत किया था,
आप लोगो का पेट पालने में,
पर सिवा जूठे वचनों के,
साहुकारो के उधारो के,
एक जून की रोटी तक न नसीब हुई,
मेरे बच्चों की थाली में.
हे धरती माँ! माफ़ कर देना मुझे,
मेरा यह पसीना जो ना सींच पाया तुझे,
जितना पानी बरसा नहीं है इस कोने में,
उससे कहीं ज्यादा बरसे हैं मेरे नयनो से.
अनाज के दानों से अनाज लहलाने वाला,
धरती से धरतीपुत्र कहलाने वाला,
आज अपने ही देश में बेबस है,
उसका खुद से ही संघर्ष है,
मेरी ही तरह यह लाखों किसान,
जी रहें हैं बिना मान सम्मान.
अगले जनम हे रब मुझे किसान मत बनाना,
अब मुझे नहीं है कभी हल चलाना,
जब तलक मेरे हर कर्म का सही दाम,
सही सम्मान का कोई फरमान,
न मिलेगा न होगा,
तब तलक यह विषपान यूहीं चलता रहेगा.
चलो अब जाने का वक्त हो चला है,
मेरे जीवन का तात्पर्य ख़त्म हो चूका है,
तेरे जिंदगी के दर्द में है इतना दम,
की मौत का दर्द भी आज लग रहा है कम.